Friday, October 18, 2024
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बेल की खेती में किसान किन बातों का रखें ध्यान? कौन से किस्म से कमा सकेंगे मुनाफा, जानिए – Fruticulture In Chhattisgarh

रायपुर: छत्तीसगढ़ के किसान अब स्ट्रॉबेरी, ड्रैगन फ्रूट जैसे फलों की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं. ऐसा ही एक फल है बेल, बेल में कई ऐसे औषधि गुण पाए जाते हैं, जो स्वास्थ्य के नजरिए से फायदेमंद है. खासकर गर्मियों में बेल की डिमांड काफी रहती है. इसकी खेती कर किसान गर्मी के दिनों में अच्छी कमाई कर सकते हैं.

कैसी भूमि में होती है बेल की खेती? : बेल, अनउपजाऊ जमीन, बंजार और लाल भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है. प्रदेश के किसान अपनी आय को दुगनी करना चाहते हैं, तो बंजर भूमि, लाल भूमि में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है.

पत्ती निकलने के समय कीटों से करें बचाव: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ घनश्याम दास साहू ने बताया, “बेल को लगाकर किसान अपनी आय भी दोगुनी कर सकते हैं. बेल फल में अगर कीट प्रकोप की बात की जाए, तो इसमें नहीं के बराबर कीट या बीमारियों का प्रकोप रहता है. लेकिन बेल में पत्ती निकलने के समय कीट का प्रकोप देखने को मिलता है. इस प्रकोप को खत्म करने के लिए नीम युक्त, ऑयल युक्त दवाइयों का प्रयोग कर सकते हैं, जिससे बेल फल की फसल को आसानी से बचाया जा सकता है.”

“बेल की पत्ती को खाने वाले कीड़े ही ज्यादा नुकसानदायक है. उसी समय किसानों को नीम युक्त दवाई का उपयोग करना चाहिए.” – डॉ घनश्याम दास साहू, कृषि वैज्ञानिक, आईजीकेवी रायपुर

बेल का कौन सा किस्म है लाभदायक: बेल के किस्मों में सीआईएसएच 2 और 4 नरेंद्र बेल 5, 6, 16 और 17 हैं. इसके साथ ही बेल के अन्य किस्म इटावा, बनारसी और कागजी गोंदा प्रमुख है. एक बेल का वजन लगभग दो से ढाई किलोग्राम का होता है. इन उन्नतशील किस्मों को लगाकर प्रदेश के किसान बेल से बनने वाले उत्पाद तैयार कर सकते हैं. साथ ही बाजार में बेल को सीधे बेचकर भी अच्छा लाभ प्रदेश के किसान अर्जित कर सकते हैं.

इम्युनिटी बढ़ाने में है फायदेमंद : डॉ घनश्याम दास साहू ने बताया, “बेल फल की पत्तियों में बहुत ज्यादा मात्रा में विटामिन प्रोटीन और मिनरल्स पाया जाता है. बेल की पत्तियां कई बार वीकनेस को दूर करने के साथ ही इम्युनिटी बढ़ाने के काम में आती है. शरीर की ठंडकता को बनाए रखने के लिए गर्मी के दिनों में बेल के जूस भी बनाकर पिया जा सकता है.”

गर्मीयों में बेल सेहत के लिए है अमृत : बेल फल ठंडा तासीर वाला होता है. लसलसा गुदादार होने के साथ ही डाइजेस्टिव फाइबर की अधिक मात्रा होती है. बेल के गुदा से बहुत सारे उत्पाद बनाये जाते हैं, जिसमें बेल के कैंडी बहुत फेमस है. इसके अलावा ताजे बेल के शर्बत गर्मी में लू से बचाने का काम करता है. पेट संबंधी समस्या को दूर करने में भी बेल फल कारगर साबित होता है. बेल में विटामिन बी और बी 12 की अधिकता होने के कारण विटामिन बी की कमी से होने वाली रिकेट्स और बेरीबेरी जैसी बीमारी के लिए लाभदायक है.

 

बहुत कमाल की है ये मूंग की वैरायटी, जानिए घर बैठे बीज मंगवाने का आसान तरीका

मूंग की खेती खरीफ फसल के रूप में की जाती है. इसकी दाल को हरा चना भी कहा जाता है. ये भारत में एक प्रमुख दाल है, जो कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. मूंग की खेती कम लागत और कम समय में खरीफ, रबी और जायद तीनों सीजन में आसानी से की जा सकती है. ऐसे में रबी फसल की कटाई के बाद किसान अपने खाली खेतों में मूंग की खेती कर सकते हैं.

मूंग की खास बात है कि यह जमीन में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाती है, जिससे अगली फसलों से बढ़िया उत्पादन मिलता है. ऐसे में अगर आप भी मूंग की खेती करना चाहते हैं और उसकी उन्नत किस्म एमएच-1142 का बीज मंगवाना चाहते हैं तो आप नीचे दी गई जानकारी की सहायता से मूंग के बीज ऑनलाइन अपने घर पर मंगवा सकते हैं.

यहां से खरीदें मूंग के बीज

राष्ट्रीय बीज निगम (National Seeds Corporation) किसानों की सुविधा के लिए ऑनलाइन मूंग की उन्नत किस्म एमएच-1142 का बीज बेच रहा है. इस बीज को आप ओएनडीसी के ऑनलाइन स्टोर से खरीद सकते हैं. यहां किसानों को कई अन्य प्रकार की फसलों के बीज भी आसानी से मिल जाएंगे. किसान इसे ऑनलाइन ऑर्डर करके अपने घर पर डिलीवरी करवा सकते हैं.

मूंग के किस्म की खासियत

मूंग की एमएच-1142 किस्म को चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा विकसित किया गया है. यह किस्म 63 से 70 दिनों में तैयार हो जाती है. इस किस्म की उपज क्षमता 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. खरीफ में इसकी बुवाई का उपयुक्त समय जून से जुलाई तक है. इस किस्म की खासियत है कि इसकी फसल में मोजेक, पत्ता झूरी और पत्ता मरोड़ जैसे खतरनाक रोग नहीं लगते हैं. इसके अलावा सफेद चूर्णी जैसे फफूंद रोगों का भी इसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता है. साथ ही इस किस्म की उपज क्षमता भी बेहतर है. यह किस्म उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड में बुवाई के लिए अच्छी मानी जाती है.

मूंग के किस्म की कीमत

अगर आप भी मूंग की एमएच-1142 किस्म की खेती करना चाहते हैं, तो एमएच-1142 किस्म के बीज का 4 किलो का पैकेट फिलहाल 33 फीसदी की छूट के साथ 720 रुपये में राष्ट्रीय बीज निगम की वेबसाइट पर मिल जाएगा. इसे खरीद कर आप आसानी से मूंग की खेती कर बेहतर मुनाफा कमा सकते हैं.

जानिए कैसे करें खेत तैयार

मूंग की खेती के लिए भूमि की तैयारी बहुत महत्वपूर्ण है. भूमि की दो से तीन बार जुताई करें. उसके बाद ढेलों को कुचलने और खरपतवारों को नष्ट करने के लिए हल्की जुताई करें. मूंग दाल के बीज बोने की विधि में मौसम का भी ध्यान रखना चाहिए. खरीफ की बुवाई के लिए पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी और पंक्ति की दूरी 30 सेमी रखने की सलाह दी जाती है. साथ ही ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल से मई तक का होता है.

किसानों से मार्केट रेट पर चना खरीदेगी सरकार, इन 3 राज्यों में 6000 रुपये तक मिलेगा भाव

बाजार में चने का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि MSP से अधिक चल रहा है. इसे देखते हुए सरकार ने अपनी एजेंसियों- नेफेड और नेशनल कोऑपरेटिव कंज्यूमर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया यानी कि NCCf से कहा है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के किसानों से चना खरीद की जाए. इन तीनों राज्यों के किसानों से नेफेड और एनसीसीएफ चना की खरीद करेंगे. इन राज्यों में किसानों से मिनिमम एस्योर्ड प्रोक्योरमेंट प्राइस (MAPP) पर चने की खरीद की जाएगी. इन राज्यों में चना का एमएपीपी 5900 रुपये से 6035 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि मौजूदा सीजन में चने की एमएसपी 5440 रुपये चल रहा है.

सूत्रों ने ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ को बताया कि सरकार किसानों से प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड के तहत चना खरीद करेगी. अगले हफ्ते यह खरीद शुरू हो सकती है. ऊपर बताए गए तीन राज्यों में एमएपीपी को 5900 रुपये से 6035 रुपये प्रति क्विंटल तक निर्धारित किया गया है. किसान इस बढ़े हुए रेट पर नेफेड या एनसीसीएफ को अपना चना बेच सकते हैं. इससे उन किसानों को राहत मिलेगी जो अच्छे भाव की तलाश में हैं और जिन्हें एमएसपी से नाराजगी है. किसान चने के भाव में गिरावट को लेकर नाराज हैं और उनका कहना है कि खुले बाजार में चना महंगा बिक रहा है जबकि एमएसपी कम है. सरकार किसानों की इस चिंता को दूर करने की कोशिश में है.

सरकार का क्या है प्लान?

प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड के जरिये सरकार कृषि और बागवानी उत्पादों की कीमतों को लेकर हस्तक्षेप करती है. इससे ग्राहकों के साथ-साथ किसानों को भी फायदा होता है. जब सरकार किसानों से सीधा खरीद करती है तो उससे किसानों की कमाई बढ़ती है. इस काम में बिचौलियों की कोई भूमिका नहीं होती, इसलिए किसानों को अच्छे रेट मिल जाते हैं. दूसरी ओर, सरकार कृषि उत्पादों की खरीद कर अपने स्तर पर खुले बाजार में बिक्री करती है जिससे सप्लाई बढ़ती है. इससे महंगाई कम करने में मदद मिलती है. आम आदमी को कुछ सस्ते में खरीद का लाभ मिल जाता है.

चने की मंडी कीमतें वर्तमान में 5,800/क्विंटल से 6,000/क्विंटल के आसपास चल रही हैं. व्यापार सूत्रों ने कहा कि चालू मार्केटिंग सीजन (अप्रैल-जून) में नेफेड द्वारा दस लाख टन (एमटी) के लक्ष्य के मुकाबले केवल 40,000 टन चना खरीदा गया है. नेफेड ने 2023-24 और 2022-23 सीज़न में प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड के तहत क्रमशः 2.3 मीट्रिक टन और 2.6 मीट्रिक टन चना खरीदा था, जिससे बफर स्टॉक को बढ़ावा मिला था.

चने की पैदावार में गिरावट

चने की पैदावार में कमी के कारण आपूर्ति और मांग का संतुलन गड़बड़ हुआ है. इससे मंडियों में चने की कीमतों में काफी वृद्धि हुई है. कृषि मंत्रालय के अनुमान के अनुसार, 2023-24 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में चना उत्पादन 12.16 मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा कम है. हालांकि व्यापार सूत्रों का अनुमान है कि प्रमुख दालों का उत्पादन आधिकारिक अनुमान से काफी कम है. सरकार ने पिछले सप्ताह देसी चने पर आयात शुल्क हटा दिया, जबकि पीली मटर पर आयात शुल्क छूट को अक्टूबर तक बढ़ा दिया, जिसका उद्देश्य चने की कीमतों में बढ़ोतरी को रोकना है.

 

 

Buffalo Breed: 1200 लीटर दूध देती है भैंस की ये नस्ल, भार ढोने और हल चलाने में भी आती है काम

देश के ग्रामीण इलाकों में कृषि कार्यों के अलावा पशुपालन का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है. कृषि के बाद यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है, जिससे किसान और पशुपालक अच्छा मुनाफा कमाते हैं. आमतौर पर दूध और उससे बने उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण गाय-भैंस पालने का चलन भी बढ़ा है. आजकल गांवों से लेकर शहरों तक लोग और डेयरी किसान भी मवेशियों की उन नस्लों को खरीदकर पाल रहे हैं जो कम लागत में अच्छा मुनाफा दे सकती हैं. ऐसे में भैंस की जाफराबादी नस्ल किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है. भैंस की यह नस्ल एक ब्यांत में 1200-1500 लीटर तक दूध दे सकती है. साथ ही भैंस की इस नस्ल का पालन भार ढोने और हल चलाने के लिए भी करते हैं. आइए जानते हैं इस नस्ल की खासियत.

एक ब्यांत में इतने लीटर दूध देती है

भैंस की जाफराबादी नस्ल गुजरात के जामनगर और कच्छ जिलों में पाई जाती है. इस नस्ल की भैंसों की गर्दन और सिर बड़े होते हैं, माथा उभरा हुआ होता है, सींग भारी होती है. सींग गर्दन की ओर झुकी होती है और शरीर का रंग मुख्यतः काला होता है. यह नस्ल एक ब्यांत में औसतन 1200-1500 किलोग्राम दूध देती है. इस नस्ल के बैलों का उपयोग मुख्य रूप से बोझा ढोने और जुताई के लिए भी किया जाता है.

क्या है इस नस्ल की खासियत

गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र की मूल निवासी और गिर के जंगलों में पाई जाने वाली जाफराबादी भैंस को कई लोग गिर भैंस के नाम से भी जानते हैं. जाफराबादी नस्ल की भैंसों की शारीरिक ताकत और दूध देने की क्षमता के आधार पर इसे दुधारू पशुओं का बाहुबली कहा जाता है. जाफराबादी भैंस के दूध में 8 प्रतिशत वसा होती है, जिसके सेवन से शरीर मजबूत होता है.

दूध उत्पादन के लिए ऐसे रखें खयाल

अच्छे दूध उत्पादन के लिए पशुओं को अनुकूल पर्यावरण की जरूरत होती है. जानवरों को भारी बारिश, तेज धूप, बर्फबारी, ठंड और बीमारियों से बचाने के लिए शेड की आवश्यकता होती है. सुनिश्चित करें कि चुने गए शेड में स्वच्छ हवा और पानी की सुविधा होनी चाहिए. भोजन के लिए जगह जानवरों की संख्या के अनुसार बड़ी और खुली होनी चाहिए, ताकि वे आसानी से भोजन कर सकें क्योंकि इसका असर पशुओं के स्वस्थ्य और दूध देने की क्षमता पर साफ दिखाई देता है.

भैंस की यह नस्ल हर दिन 30 से 35 लीटर दूध देकर डेयरी फार्मिंग में बदलाव ला सकती है. इसका वजन लगभग 800 से 1000 किलोग्राम होता है, जो एक ब्यांत में 1200 से 1500 लीटर से अधिक दूध दे सकती है.

जाफराबादी नस्ल का आहार

इस नस्ल की भैंसों को आवश्यकतानुसार भोजन देने की जरूरत होती है. फलीदार चारा खिलाने से पहले उसमें तूड़ी या अन्य चारा मिला लें ताकि कोई अव्यवस्था या बदहजमी न हो. चारे में ऊर्जा, प्रोटीन, कैल्शियम, फास्फोरस, विटामिन ए की मात्रा का ध्यान रखना जरूरी होता है.

उच्च उत्पादन के लिए दें ये आहार

अनाज – मक्का/गेहूं/जौ/जई/बाजरा
तिलहन खली – मूंगफली/तिल/सोयाबीन/अलसी/मुख्य/सरसों/सूरजमुखी
अनाज का उत्पाद – गेहूं की भूसी/चावल पॉलिश/बिना तेल के चावल पॉलिश

धान के खेत में कैसे पालें कॉमन कार्प मछली? एक एकड़ में 300 किलो तक ले सकते हैं पैदावार

मछली पालन आज के दौर में किसानों के लिए एक मुनाफे का सौदा बन कर उभर रही है. फिलहाल हमारे देश में अधिकांश मछली पालक पारंपरिक तरीके से मछली पालन करते हैं जिसमें तालाब और टैंक विधि शामिल है. हालांकि खेत में मछली पालन भी एक पारंपरिक तरीका है. इसमें जबतक खेत में पानी रहता है तबतक किसान मछली पालन कर सकते हैं. धान के खेत में मछली पालन करने से धान की खेती को भी फायदा होता और मछलियों की ग्रोथ भी तेजी से होती है. धान की खेती में मछली पालन की पद्धति को चक्रीय खेती कहा जाता है. इसमें धान के खेत में मछली के बच्चे डाल दिए जाते हैं. इसके बाद धान की कटाई करने बाद खेत को अस्थायी तालाब के रूप में बदल दिया जाता है.

इसके अलावा संयुक्त विधि से भी धान के खेत में मछली पालन किया जाता है. इन दोनों की पद्धति में मछली का संग्रहण, घनत्व और मछली का उत्पादन अलग-अलग होता है. संयुक्त खेती की तुलना में चक्रीय खेती ज्यादा फायदेमंद मानी जाती है. देश में धान के खेतों में मुख्य तौर पर कॉमन कार्प (तालाब की बड़ी मछली) प्रजाति की मछली का पालन किया जाता है. यह मछलियों की एक प्रमुख प्रजाति होती है. हालांकि यह किसान पर निर्भर करता है कि किसान खेत में सिर्फ मछली पालन करता है या उसके साथ में मछली की मिश्रित खेती भी करता है. हालांकि एशियाई देशों में धान के खेतों में अलग-अलग तरीके से मछली पालन किया जाता है.

खेत में मछलियों की स्टॉकिंग

खेत में मछली पालन करने के लिए आम तौर पर खेत के मेड़ के पास 30-45 सेंटीमीटर गहरी ट्रेंच खोदी जाती है. इसके बगल में बाहरी तरफ 25 सेंटीमीटर ऊंचा तटबंध बनाया जाता है जिससे पानी के खेत में आने जाने का मार्ग बनता है. खेत में धान की रोपाई करने के एक सप्ताह पर खेत में मछली की स्टॉकिंग की जा सकती है. मछली की स्टॉकिंग की मात्रा मछली की उम्र जगह और खेत के प्रकार पर निर्भर करता है. खेत में मछलियों की स्टॉकिंग करने के लिए एक सेंटीमीटर आकार की फ्राय या फिंगरलिंग मछली उपयुक्त मानी जाती है. ध्यान रहे कॉमन कार्प या तिलापिया की स्टॉकिंग करने से बेहतर परिणाम मिलते हैं. एक हेक्टेयर खेत में मछलियों की संख्या 3000-4000 तक हो सकती है. अगर किसान धान के खेत में मछली पालन करते हैं तो खेत में पानी की मात्रा 7 से 18 सेंटीमीटर के बीच बनाए रखना चाहिए.

एक हेक्टेयर में होने वाली पैदावार

खेत में मछली पालन करने पर प्रतिदिन खेत में कुल मछलियों की बॉयोमास का पांच प्रतिशत चारा खेत में डालना चाहिए. मछलियों का चारा सोयाबीन, गरी आटा और चावल की भूसी से मिलाकर बनाया जा सकता है. 30 दिनों के बाद मछलियों की सैंपलिग की जानी चाहिए. इस दौरान पानी बाहर निकाल देना चाहिए. सैंपलिग करने के बाद फिर से खेत में पानी भर देना चाहिए. आम तौर पर मछली के बढ़ने की अवधि 70 से 100 दिन के बीच की होती है. इसलिए धान की कटाई से एक सप्ताह पहले मछलियों को निकाल लेना चाहिए. अगर 100 दिन तक खेत में मछली को छोड़ दिया जाए तो प्रति हेक्टेयर 200-300 किलो मछली की पैदावार हासिल की जा सकती है.

गन्ना किसानों के लिए बड़ी खुशखबरी, Sugarcane विशेषज्ञ ने बताया ट्रिपल मुनाफे का फंडा

UP Sugarcane Farmers: किसानों की सबसे पसंदीदा नकदी फसल गन्‍ने की खेती करने वालों की चांदी होने वाली है. कानपुर में स्थित नेशनल शुगर इंस्टिट्यूट में लगातार गन्ना और शुगर को लेकर शोध किए जाते हैं. कानपुर पहुंचे स्प्रे इंजीनियरिंग चंडीगढ़ के मैनेजिंग डायरेक्टर और गन्ना विशेषज्ञ विवेक वर्मा ने किसान तक से खास बातचीत में बताया कि अब शुगर इंडस्ट्री में चीनी के साथ अन्य उत्पादों को भी तैयार करने के लिए कवायद शुरू की गई है. जिसमें अब जो गन्ने से शुगर निकालने के बाद बायोमास बच जाता है,उस बायोमास से शक्कर से भी कीमती प्रोडक्ट तैयार किए जाएंगे. जिससे किसानों को भी सीधा लाभ होगा. उन्होंने बताया कि जिसमें बायोमास से यूरिया, पेपर, इथेनॉल पाली एथिलीन समेत कई प्रोडक्ट तैयार किए जाएंगे. ऐसे में जहां शुगर इंडस्ट्री में चीनी के साथ यह प्रोडक्ट तैयार होंगे, तो इंडस्ट्री को भी फायदा होगा और किसानों को भी इसका फायदा होगा. क्योंकि अभी तक गन्ने के रेट उनको एक फिक्स अमाउंट ही मिलते थे.

पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण पर होगी रोकथान

विवेक वर्मा बताते हैं कि अब नॉन फूड बायोमास से तरह-तरह के प्रोडक्ट तैयार किए जाएंगे, तो देश में जो अभी प्रोडक्ट आयात किए जाते हैं उन पर रोक लगेगी. क्योंकि यहीं पर यह प्रोडक्ट तैयार किया जा सकेंगे. अभी यह नॉन फूड बायोमास बिल्कुल कबाड़ के तरह बर्बाद चला जाता है. लेकिन आने वाले समय में यह शक्कर जितना कीमती होगा. क्योंकि इससे महंगे-महंगे प्रोडक्ट तैयार किए जाएंगे.

वहीं अभी खेती करने के बाद जब फसल कट जाती है, तो उसमें जो खरपतवार बचती है उसे किसान पराली के रूप में जला देते हैं. लेकिन अब उन्हें ऐसा करने से रोका जाएगा. क्योंकि इसके इस्तेमाल से भी प्रोडक्ट तैयार किए जाएंगे. ऐसे में पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण में भी रोकथाम होगी.

सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है यूपी

देशभर में लगभग 49 लाख हेक्टेयर भूमि पर गन्ने की खेती की जाती है. इसमें अकेले उत्तर प्रदेश का हिस्सा 45% से अधिक है. इसलिए उत्तर प्रदेश सबसे अधिक गन्ना उत्पादक राज्यों में से एक है, हालांकि, इन किसानों के बड़े योगदान के बावजूद, एफआरपी वृद्धि से उनकी वित्तीय स्थिति में खास सुधार होने की संभावना नहीं है क्योंकि वे पहले से ही एसएपी के तहत नई घोषित दर से लगभग 40-60 रुपये प्रति क्विंटल अधिक कमा रहे हैं.

इन क्षेत्रों में सबसे अधिक गन्ना उत्पादन

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना क्षेत्र में प्रदेश की लगभग 65 प्रतिशत गन्ने का उत्पादन किया जाता है. इस क्षेत्र के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद, और बुलन्दशहर जैसे जिलों में सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन होता है. इसके आलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर, बस्ती, गोंडा, बाराबंकी, जौनपुर, सीतापुर, हरदोई तथा बिजनौर में गन्ने का उत्पादन प्रमुख रूप से होता है. इससे पहले योगी सरकार ने गन्ने के दाम में 20 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की थी. अगेती किस्म की कीमत अब 370 रुपये प्रति क्विंटल जबकि सामान्य किस्म का दाम 360 रुपये है.

यूपी के इस किसान ने सिरका को दिलाई देश में एक अलग पहचान, जानिए कौन हैं शुक्ला जी…

Uttar Pradesh News: गोरखपुर-लखनऊ नेशनल हाइवे -28 पर बसा उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का केशवपुर गांव सिरका उद्योग (Sirka Industry) में आज पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है. नेशनल हाइवे पर सड़क किनारे सैकड़ों दुकानें आपको सिरका की नजर आ जाएंगी. शुक्ला जी का सिरका, यादव जी, शकुंतला सिरका लिखे तमाम बोर्ड दिख जाएंगे. लेकिन आपको सिरके वाले बाबा की कहानी बताने जा रहे है, जहां छोटी से दूकान से निकला सिरका लाखों के कारोबार का रूप ले चुका है. असल, सिरका निर्माण की सफल कहानी के पीछे एक महिला का हुनर और उसकी सोच है, जिसने अपने पति को सिरका वाला बाबा बना दिया.

ऐसे तैयार होता है सिरका

किसान तक से बातचीत में शुक्ला जी सिरका के मालिक सभापति शुक्ला ने बताया कि इसके मूल में गन्ने का रस होता है. रस को बड़े-बड़े प्लास्टिक के ड्रमों में भरकर धूप में 3 महीने तक रख दिया जाता है. जब रस के ऊपर मोटी परत जम जाती है तो फिर उसकी छनाई की जाती है. फिर महीने भर धूप में रखने के बाद सरसों के तेल के साथ भुने मसाले, धनिया, लहसुन व लालमिर्च से इसे छौंका दिया जाता है. उसके बाद उसमें कच्चे आम, कटहल, लहसुन आदि डालकर रख दिया जाता है. इस तरह चार महीने में सिरका तैयार हो जाता है.

बस्ती के विक्रमजोत निवासी सभापति शुक्ला ने बताया कि वर्ष 2000 में इसकी शुरुआत की थी. उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी ने गन्ने की रस से करीब 100 लीटर सिरका बना दिया और यह सिरका लोगों में बांटना शुरू कर दिया. लोगों को यह सिरका खूब पंसद आया. यहीं से शुद्ध सिरका बनाकर बेचना शुरू कर दिया. आज यह व्यवसाय घरों से लेकर हाइवे किनारे चल रहे ढाबों तक ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मुंबई समेत कई राज्यों तक पहुंच गया. शुक्ला जी ने बताया कि बाराबंकी, अयोध्या और बस्ती तीन जिलों के बॉर्डर से इलाके जुड़ा हुआ है.

सालाना आय 40 लाख रुपये से अधिक

शुक्ला जी ने आगे बताया कि हजारों लीटर सिरका तैयार किया जाता है, लेकिन बिक्री ज्यादा होने की वजह से कम पड़ जाता है. साथ ही उन्होंने कहा कि एक जिला एक उत्पाद में सिरका का चयन होने से तमाम लोग इस व्यवसाय से जुड़ना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि आज हाईवे पर तमाम दुकानें खुल गई हैं और सभी हमारे नाम पर सिरका बेच रहे हैं, जो कि गलत है. हम लोकल में किसी को भी सिरका नही देते हैं. सभापति शुक्ला बताते हैं कि आज हमारी सालाना आय 40 लाख रुपये से अधिक की है. उन्होंने बताया कि आय कम होने के पीछे कारण है कि बहुत सारे लोग हमारे नाम का इस्तेमाल करके अपनी दूकान चला रहे है. लेकिन यह गलत है.

सिरका ने बदली माचा और केशवपुर गांव की तस्वीर

बस्ती जिले के माचा और केशवपुर गांव का सिरका व्यवसाय लघु उद्योग का रूप ले चुका है. इस कारोबार ने गांव की तस्वीर ही बदल दी है. यहां के युवा स्वरोजगार के रूप में इसे अपनाए हुए हैं. यही नहीं दूसरे बेरोजगार युवकों को रोजगार भी दे रहे हैं.

सिरका सेहत के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद

आपको बता दें कि सिरका सेहत के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद होता है. सिरके को बालों और स्किन की देखभाल के साथ ही कई गंभीर बीमारियों जैसे-दिल की बीमारी, मानसिक रोग, आदि में भी इस्तेमाल किया जाता है. इसका सही उपयोग बुढ़ापे में काफी ज्यादा फायदेमंद माना जा सकता है. कई रोगों को जड़ से खत्म करने में सिरका उपयोगी साबित हो सकता है.

छत्तीसगढ़ में उत्पादन से ज्यादा हुई चावल की खरीद, जानिए अन्य राज्यों का क्या है हाल?

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ ने केंद्रीय पूल में रिकॉर्ड 8.3 मिलियन टन चावल बेचने का योगदान दिया है, जो राज्य के 7.82 मिलियन टन उत्पादन से अधिक है. कई राज्यों में खरीद में गिरावट के बीच केंद्र को यहां से उत्पादन से अधिक अनाज खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा. हालांकि, शुरुआत में, सरकार ने 2022-23 के दौरान हुई 5.865 मिलियन टन की कुल खरीद को ध्यान में रखते हुए राज्य से 6.1 मिलियन टन खरीदने का लक्ष्य रखा था. इस बीच विशेषज्ञों ने चावल की संपूर्ण खरीद में गिरावट का अनुमान लगाया है, क्योंकि प्रमुख उत्पादक पश्चिम बंगाल में खरीद में 38 प्रतिशत की गिरावट आई है.

उधर, तेलंगाना में रबी फसल से चावल की खरीद में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ 2023-24 सीजन (अक्टूबर-सितंबर) में कुल खरीद 30 अप्रैल तक 47.03 मिलियन टन (एमटी) रही. जो पिछले साल के मुकाबले जो 6 प्रतिशत कम है. एक साल पहले यह कुल 49.88 मिलियन टन थी, हालांकि, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) का दायित्व निभाने सहित सभी कल्याणकारी कार्यक्रमों को चलाने के लिए सरकार को सालाना लगभग 40-41 मिलियन टन की आवश्यकता होती है.

इस साल का लक्ष्य कितना है?

इस साल का लक्ष्य खरीफ की फसल से 52.485 मिलियन टन और रबी सीजन से 10.315 मिलियन टन खरीद का है. जानकारी के मुताबिक 30 अप्रैल तक चावल की मौजूदा खरीद में खरीफ की फसल से 46.132 मिलियन टन चावल शामिल है, जो एक साल पहले 49.192 मिलियन टन से 6 प्रतिशत कम है. जबकि रबी की फसल से 0.902 मिलियन टन चावल शामिल है, जो एक साल पहले 0.685 मिलियन टन से 32 प्रतिशत अधिक है.

कब कम होगी चावल की मांग

सरकार ने 2022-23 में खरीफ, रबी और जायद सभी मौसमों से कुल 56.87 मिलियन टन चावल खरीदा था. आधिकारिक सूत्र ने कहा, “अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गेहूं के आवंटन की बहाली होती है, तो चावल की वार्षिक मांग कम हो सकती है. अगले महीने गेहूं की खरीद समाप्त होने के बाद स्थिति स्पष्ट हो जाएगी.”

असम में 30 जून तक होगी खरीद

पश्चिम बंगाल में खरीफ चावल की खरीद 31 मई तक और असम में 30 जून तक जारी रहेगी, जबकि अन्य सभी राज्यों में यह पहले ही खत्म हो चुकी है. उधर, खरीफ चावल खरीद के दौरान आंध्र प्रदेश में 2.5 मिलियन टन के लक्ष्य के मुकाबले केवल 1.44 मिलियन टन और तेलंगाना में 0.5 मिलियन टन के मुकाबले 3.172 मिलियन टन ही खरीदा जा सका है. इसी तरह, उत्तर प्रदेश में लक्ष्य के मुकाबले 0.9 मिलियन टन, ओडिशा में लगभग 0.5 मिलियन टन, महाराष्ट्र में 0.3 मिलियन टन और मध्य प्रदेश में लगभग 0.6 मिलियन टन खरीद की कमी रही.

तपती गर्मी से मिलेगी राहत, IMD ने इन राज्यों में जताई बारिश की आशंका, देखें मौसम अपडेट

देश भर के मौसम में एक बार फिर बदलाव के संकेत दिखाई दे रहे हैं. तपती गर्मी और तेज धूप के बाद अब भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने आने वाले दिनों में देश के कई राज्यों में बारिश की संभावना जताई है. मौसम विभाग के अनुसार पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में 9 मई तक बारिश हो सकती है. इस दौरान तेज हवाएं भी चलेंगी. 6 और सात मई को बारिश और हवाओं की तीव्रता अधिक देखने को मिलेगी. मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि 5 मई से 9 मई तक दक्षिण के राज्यों में भी गरज और तेज हवाओं के साथ बारिश हो सकती है. यहां पर सात और आठ मई को बारिश की तीव्रता अधिक रहेगी.

वहीं कई ऐसे राज्य हैं जहां पर लू का प्रकोप बना हुआ है. मौसम विभाग ने कहा कि तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और गंगीय पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में लू की गंभीर स्थिति बनी बुई है. इन क्षेत्रों का अधिकतम तापमान सामान्य से 3-5 डिग्री तक ऊपर बना हुआ है. इन राज्यों में 10 जगहों पर पारा 44 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंचा हुआ है. लू को लेकर जारी किए गए अपनी चेतावनी में आईएमडी में कहा कि है कि पूर्वी और दक्षिण भारत के राज्यों में पांच और छह मई तक लू का दौर जारी रहेगा. उसके बाद इसका प्रभाव कम हो जाएगा.

इन राज्यों में होगी बारिश

एक चक्रवाती परिसंचरण उप-हिमालयी पश्चिम बंगाल पर और दूसरा मराठवाड़ा पर और एक ट्रफ रेखा मेघालय से चक्रवाती तूफान तक बनी हुई है. इसके प्रभाव से 5 से 9 मई तक ओडिशा, गंगीय पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में हल्की से मध्यम दर्जे की बारिश होने की संभावना है. इस अवधि के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश, हरियाणा-चंडीगढ़-दिल्ली, मध्य प्रदेश, विदर्भ और छत्तीसगढ़ में भी हल्की से मध्यम बारिश होने की उम्मीद है. 7 मई को तटीय आंध्र प्रदेश और रायलसीमा और 7 मई और 8 मई को तमिलनाडु, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक और केरल में अलग-अलग स्थानों पर भारी वर्षा होने की संभावना है.7 और 8 मई, 2024 को आंतरिक कर्नाटक में अलग-अलग स्थानों पर ओलावृष्टि होने की भी संभावना है.

अब कम होगी गर्मी की लहर

मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि पूर्वी भारत में अब गर्मी की लहर की तीव्रता अब कम हो गई है. पिछले 24 घंटे के मौसम की बात करें तो स्काईमेट वेदर के अनुसार इस दौरान दक्षिणी आंतरिक कर्नाटक और केरल के उत्तरी तट पर हल्की से मध्यम बारिश और गरज के साथ बौछारें पड़ीं है.मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों और जम्मू कश्मीर में हल्की बारिश हुई है. गंगीय पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में हीटवेव से लेकर गंभीर हीटवेव की स्थिति देखी गई है.

Fish Farming: मछली पालन के लिए अब नहीं है तालाब की जरूरत, इस तकनीक से बदल रही है किसानों की किस्मत

बाराबंकी के सतरिख क्षेत्र में किसानों के बीच यह तकनीक तेज तेजी से मशहूर हो रही है. दो गांव में बायोफ्लोक तकनीक की मदद से किसान मछली पालन कर रहे हैं. एक टैंक में करीब 35 से 40 हजार रुपये की लागत आती है और इससे 4 महीने में ही लागत का पैसा डेढ़ से दोगुना तक मिल जाता है.

मछली पालन के लिए अब तालाब की जरूरत भी नहीं है क्योंकि अब घर पर ही टैंक के माध्यम से मछलियों का पालन किया जा रहा है. बायोफ्लाक तकनीक की मदद से किसानों की किस्मत संवर रही है. लखनऊ मंडल के बाराबंकी के सतरिख क्षेत्र में किसानों के बीच यह तकनीक तेज तेजी से मशहूर हो रही है. दो गांव में बायोफ्लाक तकनीक की मदद से किसान मछली पालन कर रहे हैं. एक टैंक में करीब 35 से 40,000 रुपये की लागत आती है और 4 महीने में ही लागत का पैसा डेढ़ से दोगुना तक मिल जाता है.

मछली पालन के माध्यम से किसानों की आमदनी बढ़ाने में इस तकनीक का बड़ा योगदान है. बायोफ्लाक तकनीक के माध्यम से मछली पालन कर रहे उमाशंकर ने बताया टैंक में भोजन और पानी बदलने की प्रक्रिया होती है. मछली तैयार होने में 38 से ₹40000 की लागत आती है जबकि 5 महीने में यह मछलियां तैयार हो जाती हैं. एक टैंक से 25 से ₹30000 तक का मुनाफा होता है.

क्या है बायोफ्लाक तकनीक

बायोफ्लाक तकनीक में एक बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया जाता है. इस तकनीक में सबसे पहले मछलियों को सीमेंट या मोटे पॉलिथीन से बने टैंक में डाला जाता है फिर मछलियों को जो खाना दिया जाता है उसका 75% मल के रूप में बाहर निकाल देती हैं. बायोफ्लाक बैक्टीरिया इस मल को प्रोटीन बदलने का काम करती है जिससे मछलियों खा जाती है जिससे उनका विकास तेजी से होता है.

मछली पालक 10000 लीटर क्षमता का अगर एक टैंक बनावत है तो उसे बनवाने में करीब 35 से ₹40000 की लागत आती है. इसका 5 सालों तक इस्तेमाल किया जा सकता है. मछली पालक एक टैंक से 25 से ₹30000 तक का मुनाफा कमा सकता है . इस तकनीक के माध्यम से पन्गेसियस, देसी मांगुर , सिंहि, कार्प और कॉमन कार्प किस्म की मछलियों का पालन बड़ी आसानी से किसान कर सकते हैं

60 फीसदी तक मिलती है सब्सिडी

प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत बायोफ्लाक तकनीक से मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए मत्स्य विभाग 40 से 60 फ़ीसदी की सब्सिडी दे रहा है. इस योजना का लाभ लेने के लिए किसानों को ऑनलाइन आवेदन करना पड़ता है. प्रोजेक्ट का निरीक्षण करने के बाद किसानों का चयन होता है. बायोफ्लाक तकनीक के अलावा जिले में 32 किसान आरएस विधि से काम कर रहे हैं.

केरल में शुरू हुई पशु बीमा की ये खास स्कीम, किसानों को गर्मी के आधार पर मिलेगा मुआवजा

भारत के कई राज्यों में तापमान लगातार बढ़ रहा है. जिसके कारण न सिर्फ इंसानों को बल्कि पशुओं को भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. बढ़ती गर्मी को देखते हुए केरल में जानवरों के लिए एक खास योजना शुरू की गई है. बढ़ते तापमान को देखते हुए अप्रैल और मई के लिए शुरू की गई नई योजना में लगभग 25,000 जानवरों को बीमा कवर मिला. ईआरसीएमपीयू के अध्यक्ष एमटी जयन ने गुरुवार को कहा कि प्रति डेयरी यूनिट में जानवरों की औसत संख्या को ध्यान में रखते हुए, लगभग 10,000 किसान शामिल हो सकते हैं. यह योजना त्रिशूर, एर्नाकुलम, कोट्टायम और इडुक्की जिलों के किसानों के लिए खोली गई थी, जो क्षेत्रीय सहकारी समिति के अंतर्गत आते हैं. इस क्षेत्र में लगभग 1,000 डेयरी सहकारी समितियां हैं.

99 रुपये का भरना होगा प्रीमियम

आपको बता दें इस बीमा का लाभ उठाने के लिए किसानों को 99 रुपये का प्रीमियम प्रति पशु के हिसाब से जमा करना होगा. इसमें से 50 रुपये का भुगतान क्षेत्रीय सहकारी द्वारा और 49 रुपये का भुगतान लाभार्थियों द्वारा किया जाएगा. बीमा कवर की राशि सीधे किसानों के खातों में भेजी जाती है.

गर्मी से पशु उत्पादन में आ रही गिरावट

इस बीच, बढ़ते तापमान का पशुओं के सामान्य स्वास्थ्य के साथ-साथ दूध उत्पादन पर भी सीधा प्रभाव पड़ा है. जयन ने कहा कि क्षेत्र में दूध की खरीद प्रतिदिन लगभग एक लाख लीटर कम हो गई है. राज्य भर में कुल मिलाकर 20% की कमी है, जो सामान्य स्तर से प्रतिदिन कम से कम तीन लाख लीटर की कुल कमी का संकेत देता है.

एर्नाकुलम क्षेत्र में दूध की औसत खरीद प्रतिदिन लगभग 3.25 लाख लीटर होती थी. वहीं, दूध की बिक्री अब 4 लाख लीटर के आसपास है. स्थानीय दूध आपूर्ति में कमी को महाराष्ट्र और कर्नाटक से आयात के माध्यम से पूरा किया जा रहा है.

गर्मी से बचाने के लिए करें ये उपाय

जयन ने कहा कि गर्मी का स्तर अधिक होने के कारण डेयरी किसान चारा इकट्ठा करने या जानवरों को चारे के लिए बाहर छोड़ने की स्थिति में नहीं हैं. लू से बचाव के लिए जानवरों को दिन के अधिकांश समय छायादार पेड़ों के नीचे या मवेशियों के शेड में आश्रय दिया जाता है. गर्म महीनों के दौरान उन्हें बार-बार पानी देना जरूरी है, और इससे उन किसानों का काम बढ़ गया है जो दिन के समय हरा चारा इकट्ठा करते थे या अन्य चारा तैयार करते थे.

किसानों को इतना मिलेगा मुआवजा

योजना के तहत, प्रत्येक जिले के लिए तापमान सीमा तय की जाती है और यदि तापमान लगातार छह, आठ, 10 या 25 दिनों से अधिक हो तो भुगतान किया जाता है. तब किसानों को क्रमश: 140, 440, 900 और 2,000 रुपये का मुआवजा मिलेगा.

पंजाब में उठी धान की इस किस्म पर बैन लगाने की मांग, वैज्ञानिकों ने भी जताई चिंता

पूर्व नौकरशाह काहन सिंह पन्नू ने बताया कि वे घटते जल स्तर और राज्य के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर इसके प्रभाव को लेकर बेहद चिंतित हैं. उन्होंने कहा कि हमने देखा है कि खड़े पानी में धान की खेती, खासकर मानसून की शुरुआत से पहले, जल संसाधनों के लिए एक आपदा है.

पंजाब में गिरते भूजल स्तर पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना के पूर्व छात्रों ने चिंता जताई है. ऐसे में पूर्व छात्रों ने पंजाब सरकार से धान की रोपाई की तारीख को स्थगित करने का अनुरोध किया है. साथ ही धान की पूसा-44 किस्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए तत्काल कदम उठाने को कहा है. छात्रों का कहना है कि पूसा-44 किस्म की खेती में पानी की बहुत अधिक खपत होती है. चूंकि पंजाब में अधिकांश किसान ट्यूबवेल से ही धान की सिंचाई करते हैं. इसलिए भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है.

द ट्रिब्यून की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय भूजल बोर्ड की नई रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य में भूजल स्तर हर साल दो फीट की दर से घट रहा है और अगले कुछ वर्षों में 1,000 फीट की गहराई तक सभी तीन जलभृतों में भूजल पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा. यही वजह है कि 15 साल बाद, पंजाब जल संरक्षण पहल समूह ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को पत्र लिखकर उनसे तत्काल ध्यान देने की मांग की है. इस समूह में कृषि वैज्ञानिक डॉ. एसएस जोहल, डॉ. गुरदेव सिंह खुश, डॉ. रतन लाल और डॉ. बीएस ढिल्लों सहित अन्य विश्व स्तर पर प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ शामिल हैं.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

पूर्व नौकरशाह काहन सिंह पन्नू ने द ट्रिब्यून को बताया कि वे घटते जल स्तर और राज्य के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर इसके प्रभाव को लेकर बेहद चिंतित हैं. उन्होंने कहा कि हमने देखा है कि खड़े पानी में धान की खेती, खासकर मानसून की शुरुआत से पहले, जल संसाधनों के लिए एक आपदा है. पंजाब उप मृदा जल संरक्षण अधिनियम, 2009, जिसके तहत धान बोने की तारीख 10 जून से तय की गई थी, कुछ हद तक जल संकट को दूर करने में आधारशिला थी. उन्होंने कहा कि पिछले 15 वर्षों के दौरान, कृषि वैज्ञानिक धान की ऐसी किस्में विकसित करने में सक्षम हुए हैं जो पकने में 20-30 दिन कम लेती हैं, और इन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

20 जून से होगी धान की रोपाई

समूह ने राज्य सरकार से आग्रह किया है कि उनका अंतिम लक्ष्य जुलाई के पहले सप्ताह में मॉनसून की शुरुआत के साथ ही धान की रोपाई करना होना चाहिए. लेकिन तब तक सरकार को तुरंत धान रोपाई का शेड्यूल 20 जून से आगे कर देना चाहिए. इसी प्रकार 7 जून से धान की सीधी बिजाई की अनुमति दी जाए. इसके अलावा समूह ने आग्रह किया है कि राज्य सरकार को लंबी अवधि वाली पूसा-44, पीली पूसा और डोग्गर पूसा इन किस्मों की सरकारी खरीद पर रोक लगाकर इनकी बुआई पर रोक लगानी चाहिए. यह एक तथ्य है कि ये किस्में न केवल पानी की खपत करती हैं, बल्कि धान के भारी अवशेषों के मामले में पर्यावरणीय खतरे भी हैं.

समूह ने बताया कि इन किस्मों के आधार बीज का उत्पादन भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली (पूसा किस्मों की मूल संस्था) द्वारा लगभग पांच साल पहले बंद कर दिया गया था. इन वैज्ञानिकों ने कहा कि अधिकांश किसान पहले ही कम अवधि वाली किस्मों की ओर स्थानांतरित हो चुके हैं.

 

Cotton Price: कम उत्पादन के अनुमानों के बावजूद कपास का दाम स्थ‍िर, असमंजस में क‍िसान

इस साल कपास के उत्पादन में ग‍िरावट आई है. गुलाबी सुंडी की वजह से कई राज्यों में फसल को काफी नुकसान पहुंचा है. इसल‍िए क‍िसान चाहते हैं क‍ि उन्हें अच्छा दाम म‍िले. दाम काफी द‍िनों से स्थ‍िर है इसल‍िए क‍िसान असमंजस में हैं क‍ि वो कपास को बेचें या स्टोर करें.

देश में कपास का उत्पादन कम होने के अनुमानों के बावजूद इसका दाम स्थिर है. इसलिए किसान असमंजस में हैं कि वो कपास बेचें या स्टोर करें. पिछले करीब दो महीने से कपास का न्यूनतम दाम 5500 और अधिकतम 7500 रुपये के आसपास बना हुआ है. जबकि 2021 और 2022 में किसानों को 9000 से 12000 रुपये प्रति क्विंटल तक का दाम मिला था. दो साल से महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक में क‍िसान बड़े पैमाने पर कपास को स्टोर कर रहे थे, लेक‍िन बाद में दाम ग‍िर गए और उन्हें काफी नुकसान हो गया. अब इस साल दाम के रुख को देखते हुए क‍िसान एक बार फ‍िर समझ नहीं पा रहे हैं क‍ि वो क्या करें.

महाराष्ट्र प्रमुख कपास उत्पादक है. यहां की अध‍िकांश मंड‍ियों में न्यूनतम दाम एमएसपी से कम है लेक‍िन अध‍िकतम दाम ज्यादा है. नागपुर की उमरेड मंडी में 2 मई को स‍िर्फ 160 क्व‍िंटल कपास की आवक हुई. इसल‍िए यहां न्यूनतम दाम 7000, अध‍िकतम 7210 और औसत दाम 7100 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल रहा, जो एमएसपी से ज्यादा है. केंद्र सरकार ने मध्यम रेशे वाले कपास की एमएसपी 6620 रुपये प्रति क्विंटल जबक‍ि लंबे रेशे वाली किस्म की एमएसपी 7020 रुपये प्रति क्विंटल तय की हुई है.

उत्पादन में ग‍िरावट

इस साल कपास के उत्पादन में ग‍िरावट आई है. गुलाबी सुंडी की वजह से कई राज्यों में फसल को काफी नुकसान पहुंचा है. केंद्र सरकार के अनुसार वर्ष 2023-24 में कपास का उत्पादन 323.11 लाख गांठ है, जो पिछले साल से कम है. एक गांठ में 170 किलोग्राम कपास होता है. जबक‍ि 2022-23 के तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार कपास का उत्पादन 343.47 लाख गांठ था. महाराष्ट्र के बीड, बुलढाणा, औरंगाबाद, नागपुर, अकोला, जालना, परभणी, हिंगोली, नांदेड़, अमरावती और अहमदनगर आद‍ि जिलों में कपास की खेती होती है. इनमें से कई ज‍िलों में कपास के उत्पादन में ग‍िरावट हुई है. इसल‍िए क‍िसानों को अब सही दाम म‍िलने की उम्मीद है.

क‍िस मंडी में क‍ितना है दाम

  • पर्शिवंत मंडी में 507 क्व‍िंटल कपास की आवक हुई थी. इसके बाद भी यहां कपास का न्यूनतम दाम 6900, अध‍िकतम दाम 7150 और औसत दाम 7050 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल तक पहुंच गया.
  • उमरेड मंडी में 160 क्व‍िंटल कपास की आवक दर्ज की गई. इस मंडी में न्यूनतम दाम 7000, अध‍िकतम 7210 और औसत दाम 7100 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल रहा.
  • देउलगाँव मंडी में 1000 क्व‍िंटल कपास की आवक हुई. यहां पर न्यूनतम दाम 6000, अध‍िकतम 7200 और औसत 7000 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल रहा.
  • कटोल मंडी में 5 क्व‍िंटल कपास की आवक हुई. यहां पर न्यूनतम दाम 6900, अध‍िकतम 7150 और औसत दाम 7000 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल रहा.

Gardening Tips: मई महीने में जरूर लगाएं ये पांच सब्जियां, कम खर्चे में कमाई होगी भरपूर

अगर आप भी किचन गार्डनिंग करते हैं या इस बार अपने घर में ही सब्जियां उगाने की सोच रहे हैं तो जान लीजिए कि मई का महीना किन सब्जियों के लिए बेस्ट है. कुछ खास सब्जियां हैं जिन्हें आप इस महीने लगाकर पूरे साल इनका स्वाद ले सकते हैं. आइए जानते हैं.

मौजूदा समय में किचन गार्डनिंग करना अधिक लोगों का पसंद बनता जा रहा है. बहुत से लोग तो इसे शौक के तौर पर कर रहे हैं, मगर अब जिस तरह सब्जियों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं. इसे देखते हुए घर पर गार्डनिंग करना लोगों की जरूरत सी बनती जा रही है. लोगों का किचन गार्डनिंग की तरफ बढ़ता रुझान उनको महंगी सब्जियों को खरीदने में जेब ढीली होने से बचा सकता है. वहीं इसका सबसे बड़ा फायदा तो ये है कि वो अपनी मनपसंद सब्जी को घरों में लगा सकते हैं.

घर पर उगाई गई सब्जियों के स्वाद भी बेहतरीन होते हैं. वहीं स्वाद के अलावा, घर पर उगाई गई सब्जियां सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद होती हैं. ऐसे में अब जब मई का महीना शुरू हो चुका है, तो जान लें इस महीने में आप किस सब्जी को घर पर उगा सकते हैं.

इन पांच सब्जियों को उगाएं

खीरा– खीरे की अगेती किस्म वैसे तो मार्च, अप्रैल में उगाई जाती है. लेकिन आप इसे मई में भी लगा सकते हैं. इससे उत्पादन पर कोई खास असर नहीं पड़ता है. अगर अप्रैल में खीरे की नर्सरी तैयार है तो इसकी आप मई में बुवाई कर सकते हैं. खीरा जल्द तैयार होने वाली फसल है. इसका उपयोग आप गर्मी के दिनों में कर सकते हैं.

करेला– मई के महीने में आप करेले के बीजों को गार्डन या ग्रो बैग में आसानी से लगा सकते हैं. करेले के बीज 10 से 15 दिन में अंकुरित हो जाते हैं. थोड़ा बड़ा होने पर करेले के पौधे को 5-7 घंटे की पर्याप्त धूप वाली जगह पर रख दें. वहीं यदि उचित देखभाल की जाए तो आप दो महीने बाद करेले को सब्जी के लिए तोड़ना शुरू कर सकते हैं.

भिंडी– मई का महीना, भिंडी उगाने के लिए बहुत अच्छा माना जाता है. भिंडी की अच्छी फसल के लिए, मिट्टी सही होनी चाहिए. वहीं गमले में मिट्टी डाल कर बीज लगाएं और ऐसी जगह रखें, जहां इसे पर्याप्त धूप मिल सके. साथ ही पानी तभी दें, जब गमले की मिट्टी सूखने लगे. जरूरत से ज्यादा पानी, पौधों को खराब कर देता है. इसलिए पौधे को अधिक पानी न दें. फिर कुछ दिनों बाद जब भिंडी तैयार हो जाए तो घर पर उगाई गई भिंडी का स्वाद लें.

टमाटर– टमाटर मई के महीने में लगाई जाने वाली बेस्ट सब्जी है. आप इसे अपने टेरेस गार्डन, या गमले में आसानी से लगा सकते हैं. टमाटर का उपयोग लोग सब्जी में डालने, चटनी बनाने या सलाद में करते हैं. वहीं टमाटर के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है.

बैंगन– बैंगन उगाने के लिए मई का महीना सबसे सही होता है. बैंगन उगाने के लिए अच्छी मिट्टी का होना भी बहुत जरूरी है. फिर अच्छी मिट्टी को गमले में डाल कर बैंगन का पौधा लगाएं. ध्यान दें कि गमले में पानी निकासी की व्यवस्था सही होनी चाहिए. साथ ही बैंगन के पौधे ऐसी जगह लगाने चाहिए, जहां इन्हें पर्याप्त मात्रा में धूप मिल सके. फिर कुछ दिनों बाद तैयार हुए बैंगन का आप स्वाद ले सकते हैं.

मध्य प्रदेश के लिए तैयार की गई है प्याज की यह किस्म, 42 टन प्रति हेक्टेयर मिलती है पैदावार

सफेद प्याज की यह भीमा शुभ्रा किस्म छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तमिलनाडु में खरीफ मौसम के लिए अनुमोदित की गयी है. महाराष्ट्र में पछेती खरीफ के लिए भी इसे अनुमोदित किया गया है.

देशभर में प्याज की कीमत हमेशा चर्चा का विषय रही है. जिसके चलते किसानों से लेकर रसोईया तक हर कोई प्याज का विकल्प तलाश रहा है. ऐसे में राज्य में इस संकट को दूर करने के लिए इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय प्याज की लोकप्रिय किस्म भीमा शुभ्रा को तैयार किया है. परियोजना से जुड़े कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक प्याज की पांच उन्नत किस्मों में से भीमा शुभ्रा प्याज की पैदावार छत्तीसगढ़ की जलवायु में अच्छी पाई गई है. खासकर खरीफ सीजन में इस प्याज की पैदावार लगभग 42 टन प्रति हेक्टेयर तक मिलती है.

खरीफ में प्याज की खेती कम की जाती है, लेकिन इसके विपरीत कृषि विशेषज्ञों ने प्याज की फसल लगाई और सफल परिणाम मिले. इसी तरह अगर किसान इन इलाकों में प्याज की खेती करते हैं तो इससे प्याज का उत्पादन बढ़ेगा. जिससे प्रदेश में प्याज की कमी नहीं होगी. वहीं प्याज की यह किस्म का इस्तेमाल बेहतर उत्पादन के लिए किए जा रहा है.

क्या है भीमा शुभ्रा किस्म

सफेद प्याज की यह भीमा शुभ्रा किस्म छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तमिलनाडु में खरीफ मौसम के लिए अनुमोदित की गयी है. महाराष्ट्र में पछेती खरीफ के लिए भी इसे अनुमोदित किया गया है. खरीफ में यह 110-115 दिन और पछेती खरीफ में 120-130 दिन में यह पककर तैयार हो जाती है. मध्यम भण्डारण की यह किस्म मौसम के उतार-चढ़ाव के प्रति सहिष्णु है. खरीफ में 18-20 टन/है. और पछेती खरीफ में 36-42 टन/है. तक इसकी उपज प्राप्त की जा सकती है.

कैसे तैयार करें खेत

प्याज के सफल उत्पादन में भूमि की तैयारी का विशेष महत्व है. खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. इसके बाद 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करें, प्रत्येक जुताई के बाद फावड़ा अवश्य चलाएं ताकि नमी बनी रहे और मिट्टी भी भुरभुरी हो जाए. जमीन की सतह से 15 सेमी. ऊंचाई पर 1.2 मीटर चौड़ी पट्टी पर रोपण किया जाता है, इसलिए खेत को रेज्ड-बेड प्रणाली से तैयार करना चाहिए.

ऐसे करें बीजोपचार

नर्सरी में बीज बोने से पहले बीजों को बाविस्टिन से उपचारित करें. इसके लिए 2 ग्राम बाविस्टिन को 1 लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करें और फिर इस तैयार मिश्रण से 1 किलोग्राम प्याज के बीज को उपचारित करें. इसके अलावा डैम्पिंग ऑफ और अन्य बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए 1 किलो बीज के लिए 8-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा विराइड को 50 मिलीलीटर पानी में मिलाकर जैव कवकनाशी का उपयोग करें.

प्याज की उन्नत किस्में

राज्य प्याज की किस्में 
कर्नाटक और तेलांगना नासिक लाल प्याज (एन-53), रॉयल सेलेक्शन प्याज, जेएससी नासिक लाल प्याज (एन-53), प्रेमा 178 प्याज
आंध्र प्रदेश नासिक लाल प्याज (एन-53), जेएससी नासिक लाल प्याज (एन-53), प्रेमा 178 प्याज, गुलमोहर प्याज
मध्य प्रदेश नासिक लाल प्याज (एन-53), गुलमोहर प्याज, लक्ष्मी प्याज के बीज डायमंड सुपर, रॉयल सेलेक्शन प्याज
महाराष्ट्र नासिक लाल प्याज (एन-53), गुलमोहर प्याज, जेएससी नासिक लाल प्याज (एन-53), रॉयल सेलेक्शन प्याज, लक्ष्मी प्याज के बीज डायमंड सुपर

Success story: शिमला मिर्च की खेती से इस महिला किसान की बदल गई जिंदगी, पांच गुना ज्यादा उत्पादन से खूब हुई कमाई

लखनऊ की युवा महिला किसान अनुष्का शर्मा ने 2 साल पहले शिमला मिर्च की खेती शुरू की. आज पाली हाउस के माध्यम से शिमला मिर्च की खेती में उत्पादन का रिकॉर्ड कायम किया है. बल्कि भरपूर कीमत मिलने से कमाई भी खूब हुई है.

शिमला मिर्च की खेती का चलन अब तेजी से किसानों के बीच बढ़ रहा है. इस खेती में किसानों को दूसरी फसलों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मुनाफा हो रहा है. वही इन दिनों पाली हाउस में रंगीन शिमला मिर्च व खीरे की फसल को उगाने में किसान खूब दिलचस्पी दिखा रहे हैं. सामान्य तौर पर शिमला मिर्च की फसल सर्दी के मौसम में तैयार होती है. पाली हाउस में रंगीन शिमला मिर्च अगस्त के प्रथम सप्ताह में लगाई जाती है और अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में इसमें फल आना शुरू हो जाते हैं. यह फसल 8 महीने तक चलती है यानी अप्रैल में तक भरपूर उत्पादन मिलता है. लखनऊ की युवा महिला किसान अनुष्का शर्मा ने 2 साल पहले शिमला मिर्च की खेती शुरू की. आज पाली हाउस के माध्यम से शिमला मिर्च की खेती में उत्पादन का रिकॉर्ड कायम किया है. बल्कि भरपूर कीमत मिलने से कमाई भी खूब हुई है. खुद अनुष्का बताती है की एक एकड़ खेत में उसने 35 टन शिमला मिर्च का उत्पादन मिला है जो बहुत ज्यादा है.

पौधों से करती है प्यार तो मिला 5 गुना ज्यादा उत्पादन

लखनऊ की युवा महिला किसान अनुष्का की खेती के चर्च इन दिनों पूरे देश में है. उनके पास अपनी एक बीघे की भी खेती नहीं है लेकिन उन्होंने कांटेक्ट फार्मिंग के जरिए खेती करने का फैसला किया. उनके इस फैसले से उनके परिवार वाले भी हैरान थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद मां-बाप ने सोचा था कि उनकी बेटी किसी अच्छी कंपनी में नौकरी करेगी लेकिन अनुष्का ने खेती को चुना. अपने फैसले को सही साबित करने में अनुष्का को एक साल लग गया. उन्होंने किसान तक को बताया कि उन्होंने रंगीन किस्म की शिमला मिर्च की खेती की है. पॉलीहाउस के माध्यम से एक एकड़ क्षेत्रफल में उन्होंने 35 टन उत्पादन मिला. इसके पीछे पौधों के प्रति उनका प्यार भी है जिस वजह से उनके पौधे न सिर्फ दूसरों के मुकाबले ज्यादा तंदुरुस्त है और उत्पादन भी भरपूर देते हैं.

शिमला मिर्च की कमाई से मालामाल

शिमला मिर्च रंगीन किस्म की खेती से हरी शिमला मिर्च की खेती के मुकाबले किसानों को तीन से चार गुने ज्यादा कमाई होती है. लाल और पीले किस्म के शिमला मिर्च की खेती को अनुष्का ने एक एकड़ के पॉलीहाउस में करना शुरू किया. उसके सामने चुनौती भी बड़ी थी. पिछले साल जहां शिमला मिर्च में वायरस की समस्या का सामना किसानों को करना पड़ा लेकिन उसकी फसल में वायरस नहीं लगा और उन्हें एक एकड़ में 35 टन का उत्पादन मिला जो दूसरे किसानों के मुकाबले 4 से 5 गुना ज्यादा था. पिछले साल 200 से ₹300 प्रति किलो तक उन्हें भाव मिला जिससे उन्हें 50 लाख तक कमाई हुई.

खीरे की खेती में भी बन चुकी है उत्पादन का रिकॉर्ड

शिमला मिर्च की खेती से पहले एक साल अनुष्का ने पॉलीहाउस में बीज रहित खीरे की खेती को किया. खेती भी उनकी इतनी अच्छी थी उन्हें एक एकड़ में 50 टन का उत्पादन मिला जो दूसरे किसानों के मुकाबले 6 गुना ज्यादा था. सामान्यत 8 टन तक खीरे का उत्पादन 1 एकड़ में होता है. उनके इस उत्पादन को देखकर दूसरे किसान हैरान रह गए . हाइब्रिड किस्म के खीरे के इस उत्पादन से उन्हें भी पहले साल में ही खूब कमाई हुई.

Black Paddy Farming: 250-500 रुपये किलो बिकता है काला चावल, उगाने की तैयारी में जुटे किसान अपनाएं ये विधि

अधिक कीमत और कई पोषक तत्वों से लैस होने के चलते काला धान की बाजार में खूब मांग है. खरीफ सीजन में काला धान की बुवाई की तैयारी कर रहे किसान आधुनिक विधियां अपनाकर बंपर उपज हासिल कर सकते हैं. काला धान की किस्मों में कालाबाती और चखाओ खूप पॉपुलर हैं. काला चावल की बाजार में कीमत 250 रुपये से 500 रुपये किलो तक मिल रही है.

खरीफ सीजन में काला धान की बुवाई के लिए सबसे पहले खेत को तैयार करना जरूरी है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कृषि विज्ञान केंद्र के अनुसार धान की फसल के लिए खेत की पहली जतुाई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जतुाई कल्टीवेटर से करके खेत तैयार करना चाहिए. इसके अलावा खेत की मजबूत मेड़बंदी करनी चाहिए, ताकि बारिश का पानी अधिक समय तक खेत में रोका जा सके. धान की रोपाई से पहले खेत को पानी भरकर जतुाई कर दें और जतुाई करते समय खते को समतल करना न भूलें.

दूसरी धान से बड़ा होता है पौधा

काला चावल की पैदावार सबसे पहले चीन में हुई थी, बाद में यह भारत के मणिपुर में उगाया जाने लगा. इसे मणिपुर काला धान या चखाओ काला धान के नाम से जाना जाता है. इसे अनुकूल मौसम और जलवायु के चलते असम और सिक्किम और ओडिशा समेत कुछ अन्य राज्यों के अलग-अलग हिस्सों में भी उगाया जाता है. यह काला धान 100 से-120 दिन में तैयार हो जाता है और इसका पौधा पौधा 4.5 फीट की ऊंचाई तक पहुंच सकता है, जो आम धान फसल के पौधे की तुलना में बड़ा होता है.

जैविक विधि से उगाई जाती है धान

काला चावल को अपना काला आकर्षक रंग एंथोसायनिन से मिलता है, एक प्राकृतिक काले रंग का रंगद्रव्य जो इन चावलों को असाधारण एंटीऑक्सीडेंट और अन्य हेल्थ बेनेफिट्स वाला बना देता है. इसे जैविक तरीके से उगाया जाता है, जिससे इसकी न्यूट्रीशन वैल्यू बढ़ जाती है. किसान काला धान बुवाई के दौरान जीबामृत, वर्मीकम्पोस्ट और जैव उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं. इसकी खेती में रासायनिक खादों के इस्तेमाल से बचा जाता है.

एक एकड़ में 15 क्विंटल तक उत्पादन

काला धान की फसल का भी आम धान फसल की तरह ही बाली की शुरुआत और दाना भराव होता है. इसका उत्पादन औसतन प्रति एकड़ 12-15 क्विंटल होता है. काले चावल का इस्तेमाल ज्यादातर औषधि के रूप में खीर के रूप में किया जाता है. काला चावल का आटा, सूजी, सिरप, बीयर, वाइन, केक, ब्रेड, लड्डू और अन्य मीठे खाद्य पदार्थ और ब्यूटी प्रोडक्ट समेत कुछ अन्य वस्तुओं को बनाने में किया जाता है.

500 रुपये किलो तक कीमत मिलती है

काला धान की खेती आम धान की तरह ही की जाती है, लेकिन इसका चावल अन्य किस्मों की तुलना में दोगुनी कीमत पर बिकता है. आमतौर पर सामान्य धान का चावल 50-60 रुपये प्रति किलो में बिकता है. जबकि, काला चावल बाजार में 200 रुपये से 500 रुपये किलो तक बिकता है. इसे खाड़ी देशों के साथ ही कई यूरोपीय देशों में निर्यात किया जाता है.

 

बाजार से तरबूज खरीदने से पहले आजमाएं ये 8 टिप्स, हमेशा फायदे में रहेंगे आप

गर्मियों का मौसम है और बाजार में इस वक्त तरबूज आ गए हैं. लोग गर्मियों में इस फल का सबसे अधिक सेवन करना पसंद करते हैं. ऐसे में बाजार से सही तरबूज खरीदना एक बड़ी चुनौती होती है क्योंकि अगर आप सही तरबूज का चयन नहीं कर पाते हैं तो तरबूज खाने का मजा खराब हो सकता है.

गर्मियों का मौसम है. इस मौसम में तरबूज खूब मिलते हैं. इस समय लोग काफी शौक से तरबूज खाते हैं. यह गर्मियों का पसंदीदा फल होता है. खाने में मीठा इस फल के खाने के कई स्वास्थ्य लाभ होते हैं. पर जब आप बाजार में तरबूज खरीदने जाते हैं तो अब यह समझ नहीं पाते हैं कि कौन सा तरबूज लिया जाए. अच्छा और सही तरबूज का चयन करना आपके लिए एक चैलेंज की तरह होता है क्योकि अगर सही तरबूज नहीं खरीद पाए तो फिर काटकर खाते वक्त उसका मजा किरकरा हो सकता है. तो आप भी अगर बाजार से सही तरबूज खरीदने में एक्सपर्ट होना चाहते हैं तो यह खबर आपके लिए है.

सही तरबूज खरीदने के टिप्स

1-एक समान आकार वाले तरबूज लें

जब भी आप बाजार में तरबूज खरीदने जाते हैं तो उस दुकान में जाकर तरबूज खरीदें जिसके पास एक ही आकार के तरबूज हों. अलग-अलग आकार के तरबूज असामान बढ़ने या पकने का संकेत देते हैं. साथी ही उसकी किस्म भी अलग हो सकती है और उसकी बनावट से स्वाद पर भी असर हो सकता है.

2-रंग और बनावट को अच्छी तरह देखें

जब भी आप बाजार में तरबूज खरीदें तो उसके रंग को जरूर देखें. पके हुए तरबूज चिकने दिखाई देते हैं. पके हुए तरबूज के बाहरी छिलके को देखें. इनमें आम तौर पर गहरे हरे रंग की धारियां या धब्बे होते हैं. उन तरबूज की खरीदारी करने से बचें जो पीले दिखाई देते हैं या जिनमें मुलायम धब्बे होते हैं, क्योंकि यह अधिक पके हुए या खराब हो सकते हैं.

3-तरबूज को थपथपाएं

विशेषज्ञों के अनुसार, तरबूज का पकना जानने के लिए सबसे प्रसिद्ध तरीकों में से एक थम्पिंग तकनीक है. अपने हाथ से तरबूज को हल्के से थपथपाएं और एक गहरी, खोखली आवाज सुनें. एक पका हुआ तरबूज गूंजता हुआ, ड्रम जैसी आवाज पैदा करेगा, जिससे यह पता लगा सकते हैं कि यह रस से भरा है.

4-वजन की जांच करें

एक पका हुआ तरबूज अपने आकार के हिसाब से भारी महसूस होता है. इसमें काफी मात्रा में पानी भरा होता है. इसके लिए एक तरबूज उठाएं और उसके वजन की तुलना समान आकार के अन्य खरबूजों से करें. भारी तरबूज आमतौर पर अधिक रसदार और अधिक स्वादिष्ट होता है.

5-निचले हिस्से की जांच करें

विशेषज्ञों के अनुसार तरबूज खरीदने से पहले इसके निचले हिस्से का निरीक्षण करना चाहिए जिसे पेट कहा जाता है. यह हिस्सा जमीन से सटा होता है. इस हिस्से में पील धब्बा होता है जिसे फील्ड स्पॉट कहा जाता है. अच्छी तरह पके हुए तरबूज के इस हिस्से में मलाईदार या सुनहरा पीला स्पॉट होता है.

6-शुगर स्पॉट की करें जांच

तरबूज खरीदते समय उसे ध्यान से देखें. इसमें शुगर वेन्स होते हैं. यह छोटे भूरे रंग की धारिया होती हैं जो तरबूज की सतह पर दिखाई देती हैं. ये धब्बे दर्शाते हैं कि फल में चीनी की मात्रा अधिक है और खाने में इसका फल मीठा और स्वादिष्ट होगा.

7-स्थानीय और मौसम के अनुसार खरीदें

यह सुनिश्चित करें कि आप स्थानीय स्तर पर उगाए गए और मौसम के अनुसार तरबूज खरीदें. स्थानीय रूप से उगाए गए तरबूज लंबी दूरी से भेजे गए तरबूजों की तुलना में अधिक ताजा और अधिक स्वादिष्ट होते हैं. इसके अतिरिक्त, सीजन के फल खरीदने से स्थानीय किसानों को मदद मिलती है और यह सुनिश्चित होता है कि आपको हमेशा क्वालिटी वाले उत्पाद मिल रहे हैं.

8-अपने आप पर विश्वास करें

तरबूज खरीदते वक्त आप खुद पर भी भरोसा रखें और ऐसा तरबूज चुनें जो आपको सही लगता है. यदि तरबूज पका हुआ दिखता है और लगता है, तो संभावना है कि वह स्वादिष्ट होगा. तरबूज को चुनने के अनुभव का आनंद लें.

 

 

Mango cracking: बदलते मौसम में आम-लीची के फटने का खतरा, छुटकारा पाने के लिए अपनाएं ये टिप्स

मौसम के बदलाव के साथ, आम और लीची के फलों के फटने का खतरा बढ़ जाता है, जिससे उनकी गुणवत्ता प्रभावित होती है. यह एक सामान्य समस्या है जो उत्पादकों को समय-समय पर परेशान करती है. इसे नियंत्रित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण टिप्स यहां दे रहे हैं. इन उपायों को अपनाकर, आम और लीची के फलों के फटने की समस्या से बच सकते हैं और अधिक उत्पादक फसलें प्राप्त कर सकते हैं.

आम और लीची के पेड़ों पर लटके फल देखकर सभी का मन लुभा रहा होगा कि अब बेहतर उत्पादन मिलेगा. लेकिन बढ़ते तापमान के कारण नमी और पानी की कमी के कारण फल फटने की समस्या आती है, जिससे आर्थिक नुकसान होता है. लीची और आम में फलों का फटना, एक सामान्य विकार है, जो वातावरण में बदलाव के कारण होता है. जैसे सूखे के बाद आचानक बारिश या अधिक सिंचाई के कारण फल फटने लगते हैं. दूसरा, फलों में बोरान, कैल्शियम की कमी के कारण फल फटने लगते हैं, जिसमें आम की समस्या अधिक देखने को मिलती है. यह किसानों को समय-समय पर परेशान करती है. आम और लीची के फलों के फटने की समस्या से बचा जा सकता है और बेहतर उत्पादन पाया जा सकता है. इसके लिए कुछ जरूरी उपाय करने होंगे.

तापमान के उतार-चढ़ाव से फटते हैं फल

आरएयू कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर के प्लांट पैथोलॉजी और नेमेटोलॉजी के हेड डॉ संजय कुमार के अनुसार आम और लीची के बाग में फल को फटने से बचाने के लिए नमी का स्तर एक समान बनाए रखना जरूरी है. इसके लिए सिंचाई का एक नियमित शेड्यूल बनाएं. नमी के उतार-चढ़ाव के कारण फल फटते हैं. बाग में ज़्यादा पानी देने से बचें, खासकर उस समय जब फलों का विकास हो रहा है.

मिट्टी की नमी और तापमान को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए पेड़ों के जड़ के पास चारों ओर पुआल या घास फूस का मल्च लगाएं. इससे अचानक तापमान के उतार-चढ़ाव की संभावना कम हो जाती है, जिससे फल कम फटते हैं. आम के गुच्छों में ज्यादा फल लगे हैं तो उसमें कुछ फलों को तोड़ लें. इससे फलों के बीच पोषक तत्वों और पानी के लिए प्रतिस्पर्धा कम होती है और फल कम फटते है. इससे फलों की गुणवत्ता बेहतर होती है.

आम और लीची में ये काम करें

डॉ संजय कुमार सिंह के अनुसार, फलों के फटने की समस्या में बोरान की कमी एक मुख्य कारण होती है. आम और लीची के फटने की समस्या अधिक होने पर, किसानों को 15 अप्रैल से पहले या उसके आस पास, प्रति लीटर पानी में 4 ग्राम घुलनशील बोरेक्स का घोल छिड़कना चाहिए. उसके बाद, उन्हें सूक्ष्म पोषक तत्वों के साथ ज्यादा घुलनशील बोरान का उपयोग करना चाहिए. 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से फल के फटने की समस्या में भारी कमी आती है. जब बारिश अधिक होती है या आर्द्रता बढ़ जाती है, तब पेड़ों को छायादार कपड़े या प्लास्टिक शीट से ढकने से फलों की फटने की समस्या कम होती है. लीची में, फलों के लौंग के आकार के बन जाने पर, बोरान का पहला छिड़काव (अप्रैल के प्रथम सप्ताह में) 4 ग्राम प्रति लीटर पानी और दूसरा छिड़काव फलों के रंग के शुरू होने के समय (मई के प्रथम सप्ताह में) करें. इससे फलों की फटने की समस्या कम हो जाती है.

इन बातों पर ध्यान दें, समस्या होगी कम

कीट और रोगों के कारण भी फल फट सकते हैं. लीची और आम में फंगल रोगकारक की वजह से छिलका कमजोर हो सकता है, जिससे फल फटने की संभावना बढ़ जाती है. फंगल रोगों की निगरानी के लिए फंगीसाइड का छिड़काव करना आवश्यक हो सकता है. कुछ कीट भी फलों की त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिससे फलों में दरारें पैदा हो सकती हैं. कीटों के संक्रमण को नियमित रूप से बगीचों की निगरानी करके और एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) प्रथाओं का उपयोग करके उचित नियंत्रण उपाय किए जाने चाहिए.

इस तकनीक से समस्या कम करें

विशेषज्ञ डॉ संजय सिंह के मुताबिक, फलों पर पानी छिड़काने के लिए ओवरहेड स्प्रिंकलर जैसी तकनीकों का उपयोग करें, जो तापमान और आर्द्रता में उतार-चढ़ाव को कम कर सकती है. पिछले वर्षों में, लीची के फलों के फटने की समस्या का विशेष ध्यान दिया जा रहा है, जिसका मुख्य कारण वातावरण में बड़ा परिवर्तन है. लीची के पकने के समय तापमान लगभग 40 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक हो रहा है, जिससे फल में गूदे कम बन रहे हैं और गुठली बड़ी हो रही है.

इस समस्या को कम करने का एकमात्र उपाय है कि किसान लीची के पेड़ों की दो लाइनों के बीच में ओवरहेड स्प्रिंकलर लगाएं. इस तरह दिन में पानी की बूंदें छिड़काने से उचित समय पर प्राप्त लीची के फल में गुणवत्तायुक्त फल प्राप्त होते हैं और फल के फटने की संभावना कम होती है. इस प्रकार, बाग में तापमान को बाहरी तुलना में लगभग 5 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सकता है.

फलों के फटने का खतरा कैसे कम करें?

भविष्य के लिए, फलों के फटने से पहले ही उचित इंतजाम करना बेहतर होता है. उचित कटाई और छंटाई, खुली छतरी का निर्माण जैसे काम मददगार होते हैं. कटाई छंटाई से पौधों में हवा का संचार होता है. कटाई-छंटाई नमी को भी वितरित करता है, जिससे फलों का फटने का खतरा कम होता है. तेज़ हवाओं के उतार-चढ़ाव से भी सावधान रहना चाहिए, क्योंकि ये फलों को नुकसान पहुंचा सकती हैं और उनमें दरारें बढ़ा सकती हैं. फलों की गुणवत्ता पर हवा के प्रभाव को कम करने के लिए, बगीचे के आस-पास हवारोधी प्रजातियों को लगाकर उपाय किए जाने चाहिए. जिन किसानों ने पिछले साल फल की तुड़ाई के उपरांत बाग का प्रबंधन करते समय बाग में पेड़ की उम्र के अनुसार खाद और उर्वरकों का प्रयोग किया है, उनमें फल की फटने की समस्या कम होती है.

PHOTO: बिना अधिक तामझाम के गुलाब की खेती से होगी तगड़ी कमाई, उगाने और बेचने का तरीका जानिए!

हमारे देश के किसान लगातार खेती के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग कर रहे हैं. धान-गेहूं जैसी पारंपरिक फसलों को छोड़कर अब नगदी फसलों की खेती और बागवानी पर जोर दिया जा रहा है. अगर आप खेती करके कम समय में अधिक कमाई करने वाली फसल की तलाश में हैं तो गुलाब की खेती करें. इस खबर में आपको गुलाब की खेती, इसके उपयोग और बिक्री के बारे में पूरी जानकारी देते हैं.

गुलाब की खेती करने के लिए कोई भी स्पेशल ट्रीटमेंट की जरूरत नहीं है. कुछ लोग कहते हैं कि इसे सिर्फ पॉलीहाउस में ही उगा सकते हैं जो कि गलत है. आप सामान्य तापमान में इसे कहीं भी आसानी से उगा सकते हैं. इसके लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.5 के बीच होना चाहिए.

गुलाब की खेती के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करें इसके बाद खेत में क्यारियां बना लेनी है. इन क्यारियों की लम्बाई चौड़ाई 5 मीटर लम्बी 2 मीटर चौड़ी रखते है. दो क्यारियों के बीच में आधा मीटर स्थान छोड़ना चाहिए. इन क्यारियों को ठीक वैसे ही बनाना है जैसे आलू के खेत में बनाते हैं.

अब क्यारियों में 30-60 सेमी दूरी का ध्यान रखते हुए उपचार किए गए कलमों की रोपाई करनी है. रोपाई से पहले खेत में गोबर की खाद और पोटास की मात्रा मिलाना ना भूले, साथ ही रोपाई से पहले गुलाब के कलमों का रसायनिक उपचार करना भी जरूरी है.

गुलाब के पौधों के देखभाल की बात करें तो सिंचाई और निराई-गुड़ाई करनी बहुत जरूरी है. लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना होगा की क्यारियों के बीच जलजमाव ना होने पाए. हल्की सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करें उसके बाद नमी की जांच कर 8-8 दिन में सींचें, खरपतवार हटाते रहें.

गुलाब के फूलों में रोपाई के 45 दिन बाद फिर ऑर्गेनिक खाद का छिड़काव करने से पौधों की ग्रोथ को रफ्तार मिलेगी. अगर कोई टहनी सूख रही है तो तत्काल उसे काटकर अलग कर दें. गुलाब के पौधों में फूल खिलने में लगभग चार महीने का समय लग सकता है.

गुलाब के फूलों के उपयोग की बात करें तो इससे बहुत से ब्यूटी प्रोडक्ट बनाए जाते हैं. गुलाब के फूलों को प्रोसेस करके कई दवाइयां भी बनाई जाती हैं. इतना ही नहीं गुलाब से गुलकंद, ठंडाई, सहित कई तरह के फूड आयटम भी बनाए जाते हैं इसलिए इसकी बाजार मांग बहुत अधिक है.

गुलाब के फूलों के उपयोग के बारे में जानकर आपने ये जान लिया होगा कि इसकी बाजार मांग बहुत अधिक है इसलिए इसे बेंचने के लिए आपको बहुत अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं है. बाजार में इसके खरीददार आसानी से मिलेंगे इसके अलावा कई बड़ी कंपनियां गुलाब की कांट्रैक्ट फॉर्मिंग करवाती हैं और सीधा किसानों से खरीदती हैं इसलिए आप सीधे कंपनियों को बेंच सकते हैं.